Monday, June 15, 2009
साँप
सांप या सर्प, पृष्ठवंशी सरीसृप वर्ग का प्राणी है। यह जल तथा थल दोनों जगह पाया जाता है। इसका शरीर लम्बी रस्सी के समान होता है जो पूरा का पूरा स्केल्स से ढँका रहता है। साँप के पैर नहीं होते हैं। यह निचले भाग में उपस्थित घड़ारियों की सहायता से चलता फिरता है। इसकी आँखों में पलके नहीं होती, ये हमेशा खुली रहती हैं। साँप विषैले तथा विषहीन दोनों प्रकार के होते हैं। इसके ऊपरी और निचले जबड़े की हड्डियाँ इस प्रकार की सन्धि बनाती है जिसके कारण इसका मुँह बड़े आकार में खुलता है। इसके मुँह में विष की थैली होती है जिससे जुडे़ दाँत तेज तथा खोखले होते हैं अतः इसके काटते ही विष शरीर में प्रवेश कर जाता है। दुनिया में सांपों की कोई २५००-३००० प्रजातियाँ पाई जाती हैं । इसकी कुछ प्रजातियों का आकार १० सेण्टीमीटर होता है जबकि अजगर नामक साँप २५ फिट तक लम्बा होता है। साँप मेढक, छिपकली, पक्षी, चूहे तथा दूसरे साँपों को खाता है। यह कभी-कभी बड़े जन्तुओं को भी निगल जाता है।
सरीसृप वर्ग के अन्य सभी सदस्यों की तरह ही सर्प शीतरक्त का प्राणी है अर्थात् यह अपने शरीर का तापमान स्वंय नियंत्रित नहीं कर सकता है। इसके शरीर का तापमान वातावरण के ताप के अनुसार घटता या बढ़ता रहता है। यह अपने शरीर के तापमान को बढ़ाने के लिए भोजन पर निर्भर नहीं है इसलिए अत्यन्त कम भोजन मिलने पर भी यह जीवीत रहता है। कुछ साँपों को महीनों बाद-बाद भोजन मिलता है तथा कुछ सर्प वर्ष में मात्र एक बार या दो बार ढेड़ सारा खाना खाकर जीवीत रहते हैं। खाते समय साँप भोजन को चबाकर नहीं खाता है बल्कि पूरा का पूरा निकल जाता है। अधिकांश सर्पों के जबड़े इनके सिर से भी बड़े शिकार को निगल सकने के लिए अनुकुलित होते हैं। अफ्रीका का अजगर तो छोटी गाय आदि को भी नगल जाता है। विश्व का सबसे छोटा साँप थ्रेड स्नेक होता है । जो कैरेबियन सागर के सेट लुसिया माटिनिक तथा वारवडोस आदि द्वीपों में पाया जाता है वह केवल १०-१२ सेंटीमीटर लंबा होता है। विश्व का सबसे लंबा सांप रैटिकुलेटेड पेथोन (जालीदार अजगर ) है, जो प्राय: १० मीटर से भी अधिक लंबा तथा १२० किलोग्राम वजन तक का पाया जाता है । यह दक्षिण -पूर्वी एशिया तथा फिलीपींस में मिलता है।
Saturday, June 13, 2009
हीरा
हीरा एक पारदर्शी रत्न है। यह रासायनिक रूप से कार्बन का शुद्धतम रूप है। हीरा में प्रत्येक कार्बन परमाणु चार अन्य कार्बन परमाणुओं के साथ सह-संयोजी बन्ध द्वारा जुड़ा रहता है। कार्बन परमाणुओं के बाहरी कक्ष में उपस्थित सभी चारों इलेक्ट्रान सह-संयोजी बन्ध में भाग ले लेते हैं तथा एक भी इलेक्ट्रान संवतंत्र नहीं होता है। इसलिए हीरा ऊष्मा तथा विद्युत का कुचालन होता है। हीरा में सभी कार्बन परमाणु बहुत ही शक्तिशाली सह-संयोजी बन्ध द्वारा जुड़े होते हैं, इसलिए यह बहुत कठोर होता है। हीरा प्राक्रतिक पदार्थो में सबसे कठोर पदार्थ है इसकी कठोरता के कारण इसका प्रयोग कई उद्योगो तथा आभषणो में किया जाता है। हीरे केवल सफ़ेद ही नहीं होते अशुद्धियों के कारण इसका शेड नीला, लाल, संतरा, पीला, हरा व काला होता है। हरा हीरा सबसे दुर्लभ है। हीरे को यदि ओवन में ७६३ डिग्री सेल्सियस पर गरम किया जाये, तो यह जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड बना लेता है तथा बिल्कूल ही राख नहीं बचती है।[१] इससे यह प्रमाणित होता है कि हीरा कार्बन का शुद्ध रूप है। हीरा रासायनिक तौर पर बहुत निष्क्रिय होता है एव सभी घोलकों में अघुलनशील होता है। इसका आपेक्षिक घनत्व ३.५१ होता है। बहुत अधिक चमक होने के कारण हीरा को जवाहरात के रूप में उपयोग किया जाता है। हीरा उष्मीय किरणों के प्रति बहुत अधिक संवेदनशील होता है, इसलिए अतिशुद्ध थर्मामीटर बनाने में इसका उपयोग किया जाता है। काले हीरे का उपयोग काँच काटने, दूसरे हीरे के काटने, हीरे पर पालिश करने तथा चट्टानों में छेद करने के लिए किया जाता है।
Friday, June 12, 2009
सर्पगन्धा
सर्पगन्धा एपोसाइनेसी परिवार का द्विबीजपत्री, बहुवर्षीय झाड़ीदार सपुष्पक और महत्वपूर्ण औषधीय पौधा है। इस पौधे का पता सर्वप्रथम लियोनार्ड राल्फ ने १५८२ ई. में लगाया था। भारत तथा चीन के पारंपरिक औषधियों में सर्पगन्धा एक प्रमुख औषधि है। भारत में तो इसके प्रयोग का इतिहास ३००० वर्ष पुराना है।[२] सर्पगन्धा के पौधे की ऊँचाई ६ इंच से २ फुट तक होती है। इसकी प्रधान जड़ प्रायः २० से. मी. तक लम्बी होती है। जड़ में कोई शाखा नहीं होती है। सर्पगन्धा की पत्ती एक सरल पत्ती का उदाहरण है। इसका तना मोटी छाल से ढका रहता है। इसके फूल गुलाबी या सफेद रंग के होते हैं। ये गुच्छों में पाए जाते हैं। भारतवर्ष में समतल एवं पर्वतीय प्रदेशों में इसकी खेती होती है। पश्चिम बंगाल एवं बांग्लादेश में सभी जगह स्वाभाविक रूप से सर्पगन्धा के पौधे उगते हैं।
सर्पगन्धा में रिसार्पिन तथा राउलफिन नामक उपक्षार पाया जाता है। सर्पगन्धा के नाम से ज्ञात होता है कि यह सर्प के काटने पर दवा के नाम पर प्रयोग में आता है। सर्प काटने के अलावा इसे बिच्छू काटने के स्थान पर भी लगाने से राहत मिलती है। इस पौधे की जड़, तना तथा पत्ती से दवा का निर्माण होता है। इसकी जड़ में लगभग २५ क्षारीय पदार्थ, स्टार्च, रेजिन तथा कुछ लवण पाए जाते हैं। सर्पगंधा को आयुर्वेद में निद्राजनक कहा जाता है इसका प्रमुख तत्व रिसरपिन है,जो पूरे विश्व में एक औषधीय पौधा बन गया है इसकी जड़ से कई तत्व निकाले गए हैं जिनमें क्षाराभ रिसरपिन, सर्पेन्टिन, एजमेलिसिन प्रमुख हैं जिनका उपयोग उच्च रक्त चाप,अनिद्रा, उन्माद, हिस्टीरिया आदि रोगों को रोकने वाली औषधियों के निर्माण किया जाता है इसमें १.७ से ३.० प्रतिशत तक क्षाराभ पाए जाते हैं जिनमें रिसरपिन प्रमुख हैं इसका गुण रूक्ष, रस में तिक्त, विपाक में कटु और इसका प्रभाव निद्राजनक होता है।[३]
दो-तीन साल पुराने पौधे की जड़ को उखाड़ कर सूखे स्थान पर रखते है, इससे जो दवाएँ निर्मित होती हैं, उनका उपयोग उच्च रक्तचाप, गर्भाशय की दीवार में संकुचन के उपचार में करते हैं। इसकी पत्ती के रस को निचोड़ कर आँख में दवा के रूप में प्रयोग किया जाता है। इसका उपयोग मस्तिष्क के लिए औषधि बनाने के काम आता है। अनिद्रा, हिस्टीरिया और मानसिक तनाव के दूर करने में सर्पगन्धा की जड़ का रस, काफी उपयोगी है। इसकी जड़ का चूर्ण पेट के लिए काफी लाभदायक है। इससे पेट के अन्दर की कृमि खत्म हो जाती है।
Thursday, June 11, 2009
कार्बन
पृथ्वी पर पाए जाने वाले तत्वों में कार्बन एक प्रमुख एवं महत्त्वपूर्ण तत्त्व है। इस रासायनिक तत्त्व का संकेत C तथा परमाणु संख्या ६, मात्रा संख्या १२ एवं परमाणु भार १२.००० है। कार्बन के तीन प्राकृतिक समस्थानिक 6C12, 6C13 एवं 6C14 होते हैं। कार्बन के समस्थानिकों के अनुपात को मापकर प्राचीन तथा पुरातात्विक अवशेषों की आयु मापी जाती है। कार्बन के परमाणुओं में कैटिनेशन नामक एक विशेष गुण पाया जाता है जिसके कारण कार्बन के बहुत से परमाणु आपस में संयोग करके एक लम्बी शृंखला का निर्माण कर लेते हैं। इसके इस गुण के कारण पृथ्वी पर कार्बनिक पदार्थों की संख्या सबसे अधिक है। यह मुक्त एवं संयुक्त दोनों ही अवस्थाओं में पाया जाता है।
इसके विविध गुणों वाले कई बहुरूप हैं जिनमें हीरा, ग्रेफाइट काजल, कोयला प्रमुख हैं। इसका एक अपरूप हीरा जहाँ अत्यन्त कठोर होता है वहीं दूसरा अपरूप ग्रेफाइट इतना मुलायम होता है कि इससे कागज पर निशान तक बना सकते हैं। हीरा विद्युत का कुचालक होता है एवं ग्रेफाइट सुचालक होता है। इसके सभी अपरूप सामान्य तापमान पर ठोस होते हैं एवं वायु में जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड गैस बनाते हैं। हाइड्रोजन, हीलियम एवं आक्सीजन के बाद विश्व में सबसे अधिक पाया जाने वाला यह तत्व विभिन्न रूपों में संसार के समस्त प्राणियों एवं पेड़-पौधों में उपस्थित है। यह सभी सजीवों का एक महत्त्वपूर्ण अवयव होता है, मनुष्य के शरीर में इसकी मात्रा १८.५ प्रतिशत होती है और इसको जीवन का रासायनिक आधार कहते हैं।
कार्बन शब्द लैटिन भाषा के कार्बो शब्द से आया है जिसका अर्थ कोयला या चारकोल होता है। कार्बन की खोज प्रागैतिहासिक युग में हुई थी। कार्बन तत्व का ज्ञान विश्व की प्राचीनतम सभ्यताओं को भी था। चीन के लोग ५००० वर्षों पहले हीरे के बारे में जानते थे और रोम के लोग लकड़ी को मिट्टी के पिरामिड से ढककर चारकोल बनाते थे। लेवोजियर ने १७७२ में अपने प्रयोगो द्वारा यह प्रमाणित किया कि हीरा कार्बन का ही एक अपरूप है एवं कोयले की ही तरह यह जलकर कार्बन डाइ-आक्साइड गैस उत्पन्न करता है। कार्बन का बहुत ही उपयोगी बहुरूप फुलेरेन की खोज १९९५ ई. में राइस विश्वविद्यालय के प्रोफेसर आर इ स्मैली तथा उनके सहकर्मियों ने की। इस खोज के लिए उन्हें वर्ष १९९६ ई. का नोबेल पुरस्कार प्राप्त हुआ।
बोतल वृक्ष
बोतल वृक्ष एक वृक्ष है। इसकी आठ प्रजातियाँ पाई जाती हैं। जिनमें से छः मेडागास्कर, एक अफ्रीका तथा एक आस्ट्रेलिया की मूल प्रजाति है। इस वृक्ष की ऊँचाई ५ से ३० मीटर (१६ से ९८ फीट) तथा तने का व्यास ७ से ११ मीटर (२३ से ३६ फीट) तक होता है। दक्षिण अफ्रीका के लिम्पोपो प्रांत में दुनिया का सबसे बड़ा बोतल वृक्ष है जिसके तने की परिधि ५० मीटर (१६० फीट) तथा औसत व्यास १५ मीटर (४९ फीट) है। बोतल वृक्ष हजारों सालों तक जीवित रहते हैं। इसकी सभी प्रजातियाँ शुष्क प्रदेशों में पाई जाती हैं। ये वृक्ष गर्मी की शुष्क ऋतु के प्रारम्भ में अपने पत्ते गिरा देते हैं। बोतल वृक्ष अपने फूले हुए तने में १,२०,००० लीटर तक जल जमा रखता है। सूखे के समय आस्ट्रेलियाई किसान पेड़ का तना काटकर उसमें जमा पानी अपने पशुओं को पिलाते हैं ताकि वे प्यास से मरें नहीं। इसी से इस बाओबा वृक्ष का नाम बोतल वृक्ष पड़ा है। बोतल वृक्ष मेडागास्कर का राष्ट्रीय वृक्ष है।
इसका फल अत्यंत पौष्टिक होता है। इसमें विटामिन सी की मात्रा नारंगी के फल से अधिक होती है तथा कैल्सियम की मात्रा गाय के दूध से भी अधिक होती है। इसके फल का रस मालावी के लोग बड़े चाव से पीते हैं। इसके पत्तों की सब्जी तो पूरे अफ्रीका में खाई जाती है। नाइजीरिया में इसकी पत्तियों को कूका कहते हैं तथा इससे कूका सूप तैयार होता है।
Wednesday, June 10, 2009
सिनकोना
सिनकोना, एक सदाबहार पादप है। यह बहुवर्षिय वृक्ष सपुष्पक एवं द्विबीजपत्री होता है। इसके पत्ते लालिमायुक्त तथा चौड़े होते हैं जिनके अग्र भाग नुकीले होते हैं। शाखा-प्रशाखाओं में असंख्य मंजरी मिलती है। इसकी छाल कड़वी होती है। इस वंश में ६५ जातियाँ हैं। सिनकोना का पौधा नम-गर्म जलवायु में उगता है। उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्र जहां तापमान ६५°-७५° फारेनहाइट तथा वर्षा २५०-३२५ से.मी. तक होती है सिनकोना के पौधों के लिये उपयुक्त है। भूमि में जल जमा नहीं होना चाहिए तथा मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ अधिक होने चाहीए। मिट्टी अम्लीय तथा नाइट्रोजन का स्तर ८% से अधिक उपयुक्त है। पौधें के लिये पाला तथा तेज हवा हानिकारक है। भारत में दार्जिलिंग आदि ठंडी जगहों पर इसके पौघे देखने को मिलते हैं। यूरोपीय वैज्ञानिकों को इसका पता सबसे पहले एंडीज़ पहाड़ियों में १६३० के आसपास लगा।
सिनकोना के १० वर्ष या उससे पुराने वृक्षों में एल्केल्वाय़ड्स का परिमाण सर्वाधिक होता है। वृक्षों के आधार से १ मीटर ऊचाई तक के छाल को संग्रह किया जाता है। जड़ की छालों में भी एल्केल्वाय़ड्स समान परिमाण में पाए जाते है। जब वृक्ष गिर जाते हैं तो उसकी छालों को संग्रह किया जाता है। संग्रहीत छालो को छाया में सुखाया जाता है। वर्षा के दिनों में इन्हें १७५° F तक कृत्रिम रूप से सुखाया जाता है। औषधि के निर्माण के लिये छाल को महीन पीस लिया जाता है। इस चूर्ण में १/३ भाग बुझा चुना तथा ५% दाहक खार (कास्टिक सोडा) का जलीय घोल मिलाया जाता है। इस मिश्रण को उबलते हुए कैरोसिन से निस्सारित (एक्सट्रैक्ट) किया जाता है। इस निस्सारण में पर्याप्त मात्रा में गर्म तनु गंधकाम्ल मिलाने पर कुनैन (क्यूनीन) का अवक्षेप प्राप्त होता है। कुनैन के उपयोग से मलेरिया बुखार की दवा तैयार की जाती है। हैनिमैन जो कि स्वंय एलोपैथिक चिकित्सक थे, एक दिन एक दिन उन्होनें देखा कि स्वस्थ शरीर में यदि सिनकोना की छाल का सेवन किया जाये, तो कम्पन ओर ज्वर पैदा हो जाता है, ओर सिनकोना ही कम्पन और ज्वर की प्रधान दवा है।
Tuesday, June 9, 2009
रेफ्लीसिया
मुख्यतः मलेशिया एंव इंडोनेशिया में पाया जाने वाला, रेफ्लीसिया एक आश्चर्यजनक परजीवी पौधा है, जिसका फूल वनस्पति जगत के सभी पौंधों के फूलों से बड़ा लगभग १ मीटर व्यास का होता और इसका वजन १० किलोग्राम तक हो सकता है। इसकी सबसे छोटी प्रजाति २० सेमी व्यास की पाई गई है। सभी प्रजातियों में फूल की त्वचा छूने में मांस की तरह प्रतीत होती है और इसके फूल से सड़े मांस की बदबू आती है जिससे कुछ विशेष कीट पतंग इसकी ओर आकृष्ट होते हैं।
इस की खोज सबसे पहले इंडोनेशिया के वर्षा वनों में हुई थी, जब सर्वप्रथम डाक्टर जोसेफ अर्नाल्ड के एक स्थानीय गाइड ने इसे देखा। इसका नामकरण उसी खोजी दल के नेता सर थॉमस स्टैमफोर्ड रेफ्लस के नाम पर हुआ। अब तक इसकी २६ प्रजातियां खोजी जा चुकी है। जिनमें से ४ का नामकरण स्पष्ट रुप से नहीं हुआ है। इंडोनेशिया और मलेशिया के अतिरिक्त यह पौधा सुमात्रा और फ़िलीपीन्स में भी पाया जाता है। इसका जन्म किसी संक्रमित पेड़ की जड़ से होता है। पहले एक गाँठ सी बनती है और जब यह बड़ी होकर एक बंदगोभी के आकार की हो जाती है तब चार दिनों के अंदर इसकी पंखुड़ियाँ खुल जाती हैं और पूरा फूल आकार ले लेता है। इस पौधे में केवल फूल ही एक ऐसा भाग है जो जमीन के ऊपर रहता है शेष सब भाग कवक जाल की भांति पतले-पतले होते हैं और जमीन के अन्दर ही धागों के रूप में फैले रहते हैं। यह दूसरे पौधे की जड़ों से भोजन चूसते हैं।
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