Wednesday, June 10, 2009
सिनकोना
सिनकोना, एक सदाबहार पादप है। यह बहुवर्षिय वृक्ष सपुष्पक एवं द्विबीजपत्री होता है। इसके पत्ते लालिमायुक्त तथा चौड़े होते हैं जिनके अग्र भाग नुकीले होते हैं। शाखा-प्रशाखाओं में असंख्य मंजरी मिलती है। इसकी छाल कड़वी होती है। इस वंश में ६५ जातियाँ हैं। सिनकोना का पौधा नम-गर्म जलवायु में उगता है। उष्ण तथा उपोष्ण कटिबंधी क्षेत्र जहां तापमान ६५°-७५° फारेनहाइट तथा वर्षा २५०-३२५ से.मी. तक होती है सिनकोना के पौधों के लिये उपयुक्त है। भूमि में जल जमा नहीं होना चाहिए तथा मिट्टी में कार्बनिक पदार्थ अधिक होने चाहीए। मिट्टी अम्लीय तथा नाइट्रोजन का स्तर ८% से अधिक उपयुक्त है। पौधें के लिये पाला तथा तेज हवा हानिकारक है। भारत में दार्जिलिंग आदि ठंडी जगहों पर इसके पौघे देखने को मिलते हैं। यूरोपीय वैज्ञानिकों को इसका पता सबसे पहले एंडीज़ पहाड़ियों में १६३० के आसपास लगा।
सिनकोना के १० वर्ष या उससे पुराने वृक्षों में एल्केल्वाय़ड्स का परिमाण सर्वाधिक होता है। वृक्षों के आधार से १ मीटर ऊचाई तक के छाल को संग्रह किया जाता है। जड़ की छालों में भी एल्केल्वाय़ड्स समान परिमाण में पाए जाते है। जब वृक्ष गिर जाते हैं तो उसकी छालों को संग्रह किया जाता है। संग्रहीत छालो को छाया में सुखाया जाता है। वर्षा के दिनों में इन्हें १७५° F तक कृत्रिम रूप से सुखाया जाता है। औषधि के निर्माण के लिये छाल को महीन पीस लिया जाता है। इस चूर्ण में १/३ भाग बुझा चुना तथा ५% दाहक खार (कास्टिक सोडा) का जलीय घोल मिलाया जाता है। इस मिश्रण को उबलते हुए कैरोसिन से निस्सारित (एक्सट्रैक्ट) किया जाता है। इस निस्सारण में पर्याप्त मात्रा में गर्म तनु गंधकाम्ल मिलाने पर कुनैन (क्यूनीन) का अवक्षेप प्राप्त होता है। कुनैन के उपयोग से मलेरिया बुखार की दवा तैयार की जाती है। हैनिमैन जो कि स्वंय एलोपैथिक चिकित्सक थे, एक दिन एक दिन उन्होनें देखा कि स्वस्थ शरीर में यदि सिनकोना की छाल का सेवन किया जाये, तो कम्पन ओर ज्वर पैदा हो जाता है, ओर सिनकोना ही कम्पन और ज्वर की प्रधान दवा है।
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